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उदु॒ ष्य दे॒वः स॑वि॒ता स॒वाय॑ शश्वत्त॒मं तद॑पा॒ वह्नि॑रस्थात्। नू॒नं दे॒वेभ्यो॒ वि हि धाति॒ रत्न॒मथाभ॑जद्वी॒तिहो॑त्रं स्व॒स्तौ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud u ṣya devaḥ savitā savāya śaśvattamaṁ tadapā vahnir asthāt | nūnaṁ devebhyo vi hi dhāti ratnam athābhajad vītihotraṁ svastau ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। ऊँ॒ इति॑। स्यः। दे॒वः। स॒वि॒ता। स॒वाय॑। श॒श्व॒त्ऽत॒मम्। तत्ऽअ॑पाः। वह्निः॑। अ॒स्था॒त्। नू॒नम्। दे॒वेभ्यः॑। वि। हि। धाति॑। रत्न॑म्। अथ॑। अ॒भ॒ज॒त्। वी॒तिऽहो॑त्रम्। स्व॒स्तौ॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:38» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अड़तीसवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (वह्निः) पहुँचनेवाला (तदपाः) जिसका पहचानना ही कर्म है (सविता) सकल जगत् का उत्पादनकर्त्ता (देवः) देदीप्यमान जगदीश्वर (सवाय) उत्पन्न करने के लिये (शश्वत्तमम्) अनादिस्वरूप अनुत्पन्न कारण को (देवेभ्यः) क्रीडा करते हुये जीवों से (नूनम्) निश्चित (उदस्थात्) उपस्थित होता है (उ) और (स्यः) वह (हि) ही (रत्नम्) रमणीय जगत् को (वि,धाति) विधान करता है (अथ) इसके अनन्तर (स्वस्तौ) सुख के निमित्त (वीतिहोत्रम्) ग्रहण की ईश्वर की व्याप्ति में अपनी व्याप्ति जिसमें ऐसे जगत् को (अभजत्) सेवता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो अनादि त्रिगुणात्मक प्रकृतिस्वरूप जगत् का कारण है, उसी से सब जगत् को उत्पन्न कर जो धारण कर रहा है, उससे सब जीव निज-निज शरीर और कर्म को सेवते हैं, जो इस जगत् को जगदीश्वर न उत्पादन करे तो कोई भी जीव शरीरादि न पा सके ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरविषयमाह।

अन्वय:

यो वह्निस्तदपाः सविता देवो जगदीश्वरः सवाय शश्वत्तमं देवेभ्यो नूनमुदस्थात्। उ स्यो हि रत्नं विधाति अथ स्वस्तौ वीतिहोत्रं जगदभजत् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (उ) (स्यः) सः (देवः) (सविता) सकलजगदुत्पादकः (सवाय) उत्पादनाय (शश्वत्तमम्) अनादिस्वरूपमनुत्पन्नं कारणम् (तदपाः) तदपः कर्म यस्य सः (वह्निः) वोढा (अस्थात्) तिष्ठति (नूनम्) निश्चितम् (देवेभ्यः) क्रीडमानेभ्यो जीवेभ्यः (वि) (हि) किल (धाति) दधाति (रत्नम्) रमणीयं जगत् (अथ) आनन्तर्ये (आ) (अभजत्) सेवते (वीतिहोत्रम्) गृहीतेश्वरव्याप्ति (स्वस्तौ) सुखे ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या यदनादि त्रिगुणात्मकं प्रकृतिस्वरूपं जगत्कारणमस्ति तस्मादेव सर्वं जगदुत्पाद्य यो धरति तस्मात्सर्वे जीवाः स्वं स्वं शरीरं कर्मफलं च सेवन्ते यदीदं जगदीश्वरो नोत्पादयेत्तर्हि कोऽपि जीवः शरीरादि प्राप्तुं न शक्नुयात् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात ईश्वर, सूर्य व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जो अनादि त्रिगुणात्मक प्रकृतिस्वरूप जगाचे कारण आहे. त्यानेच सर्व जग उत्पन्न केलेले असून धारण करीत आहे. त्यामुळे सर्व जीव आपापले शरीर व कर्म यांचे सेवन करतात. जर या जगाला परमेश्वराने निर्माण केले नसते, तर कोणत्याही जीवाला शरीर इत्यादी मिळू शकले नसते. ॥ १ ॥